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कारगिल विजय दिवस : 140 किमी तक बम धमाकों के बीच कारगिल की दुर्गम पहाड़ियों को रौंदते पहुंचाई रक्षा सामग्री…

– जरा याद इन्हें भी कर लो…

– देश के वीर सपूतों ने बताया कि किस तरह बम धमाकों के बीच कारगिल की दुर्गम पहाड़ियों को रौंदते हुए उन्होंने बंकर तक उन्होंने रक्षा व खाद्य सामग्रियां पहुंचाई

– धुप अंधेरे में बिना लाइट जलाए वाहनों के काफिले को 140 किमी की दूरी तय कर ऊंची चोटी तक पहुंचाया

रांची : कारगिल विजय दिवस पर शहर में कई कार्यक्रम आयोजित किए गए। किसी ने वीर सैनिकों और उनके परिवारों को सम्मानित करने का कार्यक्रम किया तो किसी ने उनकी याद में प्रतिमा स्थापित करने की मांग की। इसी कड़ी में हमने कारगिल युद्ध में अपनी सेवा दे चुके वीर सैनिकों से बातचीत की। उन्होंने कारगिल युद्ध के मंजर की दास्तां आज भी उसी तरह सुनाई जैसा कि वे उस दौरान देश के लिए जान देने को उतारू थे। देश के वीर सपूतों ने बताया कि किस तरह बम धमाकों के बीच कारगिल की दुर्गम पहाड़ियों को रौंदते हुए उन्होंने बंकर तक उन्होंने रक्षा व खाद्य सामग्रियां पहुंचाई। धुप अंधेरे में बिना लाइट जलाए वाहनों के काफिले को 140 किमी की दूरी तय कर ऊंची चोटी तक पहुंचाया। पल पल मौत का मंजर दिख रहा था। हमने हिम्मत नहीं हारी और पूरे उत्साह के साथ एक दूसरे की मदद से जीत हासिल की। आज कारगिल का दृश्य पूरी तरह से बदल चुका है। देश के जवानों को अत्याधुनिक हथियारों के अलावे कई ऐसे उपकरण प्राप्त हो चुके हैं जिसके दम पर दुश्मन देश को धूल चटा सकते हैं। सूचनाओं के आदान प्रदान होने के क्रम में जानकारी मिलती है कि अब ताे बंकर तक सड़कें बन चुकी हैं और आधुनिक हथियारों और नाइट विजन डिवाइस से सेना को मजबूत किया जा चुका है। बातचीत के क्रम में आज भी हमारे सेवानिवृत्त हो चुके जवान इतने भावुक हो जाते हैं कि देश के लिए मर मिटने की बात करने लगते हैं…

कारगिल युद्ध के दौरान श्रीनगर के आड एयर फिल्ड लोकेशन में पदस्थापित था। काफी विषम स्थिति थी। बम धमाकों के बीच वीर सैनिकों के लिए 22 गाड़ियों और 52 जवानों के साथ रक्षा सामग्री और खाद्य सामग्री लेकर निकला था। धुप अंधेरे में बिना लाइट जलाए गाड़ियों के काफिले को बंकर तक पहुंचाना था। पाकिस्तान की ओर से लगातार बमबारी की जा रही थी और गाड़ियों की लाइट पर उनकी नजर थी। लेकिन हमने काफी सूझ बूझ का परिचय देते हुए सामग्रियां जवानों तक पहुंचाई। बम धमाके होते तो गाड़ियों को रोककर वहीं रूक जाते थे। ऊंची पहाड़ियों पर बिना लाइट के वाहनों को ले जाना बड़ी मुसीबत थी। डेढ़ घंटे की फायरिंग रूकने के बाद हमारा काफिला आगे बढ़ा और 140 किमी का सफर तय करने के बाद हमलोग बंकर के पास अहले सुबह करीब पौने चार बजे पहुंचे तो मंजर देख दिल दहल गया। लाशें ही लाशें नजर आ रही थी। जो जवान मोर्चा संभाले थे उन्हें खाने पीने का होश तक नहीं था। 24 घंटे में सिर्फ आधे घंटे के लिए यदि समय मिल जाए तो किसी ओट में नींद ले लेते थे। यह सिलसिला एक माह तक चलता रहा। आज कारगिल समेत पूरे देश के सीमाई क्षेत्रों की स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। आज हमारे जवान अत्याधुनिक हथियारों से लैस हैं और किसी भी देश को नाकों चने चबाने के लिए मजबूर कर सकते हैं।
: सूबेदार मेजर एमपी सिन्हा।

जम्मू कश्मीर के बारामुला, सियाचीन व लेह लद्दाख समेत हाई एल्टीट्यूड पर दुश्मनों का कब्जा हो चुका था। ऊपर से दनादन गोलियां और गोले दागे जा रहे थे। हमारे जवान लगातार गोरिल्ला वार करते हुए धीरे-धीरे जान की परवाह किए बगैर ऊंचाई को फतह कर रहे थे। मैं उस वक्त 15 असम रेजीमेंट में कार्यरत था। शुरुआती दौर में दुश्मन काफी हावी था। नीचे से ऊपर जाने के कारण स्थिति लगातार विषम बनती जा रही थी लेकिन हमारे वीर जवानों के अदम्य साहस और हिम्मत ने राह आसान कर दी। एक एक कर हमने सारे प्वाइंट्स पर कब्जा कर लिया। हर प्वाइंट को जीतने के बाद भारत माता की जय और तिरंगे को लहराते हमलोग आगे बढ़ते जा रहे थे। दोनों तरफ से लड़ाई भीषण होती गई लेकिन अंतत: दुश्मनों को हथियार डालना पड़ा। हालांकि इस लड़ाई में वायुसेना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दुश्मनों के सभी प्वाइंट्स को ध्वस्त कर दिया गया था। आज भी कारगिल विजय को याद कर गर्व से सीना चौड़ा हो जाता है। मेरा एकमात्र बेटा है जिसे नेवी में सेवा के लिए भेजा है। देश की खातिर मर मिटने के लिए हर किसी को तैयार रहना चाहिए। क्योंकि यह मौका हमेशा नहीं मिलता है। आज अग्निवीर को लेकर पूरे देश में बेवजह हायतौबा मचा है। यह मौका देश के युवाओं को मिला है। इसे हर हाल में आत्मसात करना चाहिए। चार वर्षों की साधना के बाद जब हमारे युवा अपने घर लौटेंगे तो उनके साथ ईमानदारी, अनुशासन और देश सेवा का जज्बा साथ रहेगा…। जो कि आमतौर पर कम देखने को मिलता है।
: कर्नल समरजीत, रांची।

कारगिल युद्ध के दौरान कुपवाड़ा में पदस्थापित थे। खाद्य सामग्री की सप्लाई का कार्यभार हमें मिला था। साथ में ईंधन और पेयजल भी था। बैरल में ईंधन भरकर हमें दुर्गम पहाड़ियों का रास्ता तय करते हुए शिखर पर पहुंचना था। बिना लाइट की गाड़ियों के काफिले को बंकर तक पहुंचाना था। ऊंचाई में गाड़ियों के इंजन को स्टार्ट कर देते लेकिन ढ़लान आते ही हमलोग आगे आगे पैदल चलकर अंधेरे में ड्राइवर का मार्गदर्शन करते रहे। नीचे से ट्रूप को लेकर ऊपर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी को सोचकर आज भी मन मचल उठता है। हमारे जवानों के उत्साह में कोई कमी नहीं थी। सभी एक दूसरे की मदद से लगातार आगे बढ़ते जा रहे थे। दुश्मन देश के हौसले लगातार पस्त हो रहे थे। जहां हमलोग ठहरे थे वहां के भवनों का शीशा बम के धमाकों से टूट चुका था और रात में ठंड से बुरा हाल था। ऊपर पहुंचने के बाद मेस चलाना और जवानों के लिए सारी व्यवस्था करना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं थी। एक माह तक विषम परिस्थिति में जिंदगी जीने के बाद हमने दुश्मनों को पीछे धकेल दिया। 30 अप्रैल 1999 को मेरी शादी हुई थी और मई से युद्ध शुरू हो गया। एक साल बाद हमने अपने बेटे का मुंह देखा था, वह पल काफी मार्मिक था। आज हमारा देश तरक्की के शिखर पर है। कारगिल के दुर्गम रास्तों पर अब सड़कें बन चुकी हैं। कई आधुनिक सेवाएं उपलब्ध हैं। हमारे जवान आज किसी भी देश को टक्कर देने के लिए मजबूती से तैयार हैं।
: हवलदार संजीत कुमार सिंह।

नायब सूबेदार नागेश्वर महतो की पत्नी संध्या देवी आज पूरी तरह से आत्मनिर्भर हैं। उनके पति नागेश्वर महतो ने देश के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी। 25 वर्षों बाद अपने पति की बहादुरी को याद करते हुए संध्या देवी कहती हैं कि काफी गर्व महसूस होता है। उन्होंने कहा कि उस समय मोबाइल का जमाना नहीं था और न ही आनलाइन पेमेंट की व्यवस्था थी। इसी दौरान युद्ध छिड़ गया और पति की कोई जानकारी नहीं मिल पा रही थी। काफी देर तक प्रयास करने के बाद एकाध मिनट के लिए बात करने का मौका मिलता था। युद्ध के ही दौरान पता चला कि पति ने देश के लिए अपना बलिदान दे दिया है। कुछ पल के लिए वह पल मार्मिक और असहनीय जरूर था लेकिन जब बात देश की आती है तो सीना गर्व से चौड़ा हो गया। आज हमारे तीनों बच्चे खुशहाल हैं और अपने अपने कार्यों में लगे हैं। अपने पिता के आशीर्वाद से उन्हें सबकुछ मिला है।
: नायब सूबेदार नागेश्वर महतो।

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