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अच्छे विचार…जीवन में सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों का है विशेष महत्व : प्राचार्य

मनुष्य इस सुंदर सृष्टि का श्रेष्ठ प्राणी, वह समाज का अभिन्न अंग

हम सबका कर्तव्य है कि हम अपने बच्चों को देश की उज्ज्वल संस्कृति से अवगत करवाकर उन्हें अपनी संस्कृति से प्रेम करना सिखाएं

रांची : मनुष्य इस सुंदर सृष्टि का श्रेष्ठ प्राणी है। वह समाज का अभिन्न अंग है। वह बचपन से ही अपने परिवार तथा आसपास की दुनिया अर्थात अपने समाज को देखकर बड़ा होता है। जहां एक ओर वह अपने पारिवारिक संस्कारों को जाने अनजाने ग्रहण करता चला जाता है, वहीं अपने समाज से भी प्रभावित होता है। किसी के जीवन में सांस्कृतिक तथा सामाजिक मूल्यों का बराबर महत्व होता है। ये विचार एसआर डीएवी पुंदाग रांची के प्राचार्य संजीत कुमार मिश्रा ने प्रकट किए। उन्होंने कहा कि आज विज्ञान तथा इंटरनेट के युग में पूरी दुनिया सिमटकर मोबाइल के एक क्लिक पर आ गई है। किशोरावस्था बचपन तथा युवावस्था के बीच की वह अवस्था है, जिसमें मनुष्य नाना प्रकार की शंकाओं से घिरा रहता है। यह उसके शारीरिक तथा मानसिक विकास का दौर होता है। मानसिक रूप से अपरिपक्व होने के कारण अनेक विषयों को वह ठीक से नहीं समझ पाता, दूसरी ओर वह अपने विचार भी अधिकतर अपने समकक्ष किशोरों से ही साझा करता है, जो उनका मार्गदर्शन भी ठीक से नहीं कर पाते। ऐसे में उसके परिवार तथा शिक्षकों का उत्तरदायित्व होता है कि वे उन किशोरों का विश्वास हासिल करें, उनकी समस्याओं को न केवल धैर्यपूर्वक सुनें बल्कि उन्हें उचित सलाह भी दें। सबसे आवश्यक है उसमें सांस्कृतिक चेतना उत्पन्न करवाना। उनके मन में अपनी संस्कृति के प्रति प्रेम पैदा करना। जिस प्रकार एक पेड़ अपने जड़ से अलग होकर नहीं रह सकता, विकास नहीं कर सकता, वैसे ही कोई मनुष्य भी अपनी संस्कृति से अलग होकर विकास नहीं कर सकता।इसलिए हम सबका कर्तव्य है कि हम अपने बच्चों को देश की उज्ज्वल संस्कृति से अवगत करवाकर उन्हें अपनी संस्कृति से प्रेम करना सिखाएं। उन्हें अपनी संस्कृति से जोड़ें। उन्हें बताएं कि किस प्रकार हम बाकी दुनिया से अलग और श्रेष्ठ हैं। बाकी दुनिया अब हमारे संस्कारों की कायल होती जा रही है एवं उन्हें दिल खोलकर अपना भी रही है। जैसे सुस्वास्थ्य के लिए योगाभ्यास करना, ध्यान लगाना, मोटे अनाजों का सेवन करना, परिवार के साथ समय व्यतीत करना आदि। कहते हैं कि बच्चे की पहली पाठशाला घर है और वहां माता पिता गुरु की भूमिका निभाते हैं। न केवल माता पिता बल्कि परिवार व समाज से भी बच्चा बहुत कुछ सीख कर बड़ा होता है। उसके हृदय में अपने संस्कारों के प्रति अभिमान भरने का काम भी उसके परिवार की पहली जिम्मेदारी है। जैसे जैसे बच्चा बड़ा होता है, उसकी सोच समझ विकसित होती है। वह शारीरिक तथा मानसिक रूप से परिपक्व होता चला जाता है। किशोरावस्था की सीख उसके भविष्य का आधार होती है।इसलिए किशोरावस्था में ही उसे अपनी संस्कृति के प्रति जागरूक करना होगा, उसे अपनी संस्कृति से प्रेम करना सिखाना होगा, तभी वह वैश्वीकरण की दुनिया में स्वयं को समायोजित कर पाएगा, अन्यथा वह हीन भावना का शिकार हो सकता है। आज के युवाओं की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे पाश्चात्य संस्कृति की चपेट में आते जा रहे हैं, जो कि हमारे देश के लिए बिल्कुल अच्छा नहीं है। एक तरफ दुनिया के कई विकसित देश हमारी संस्कृति की प्रशंसा कर उसे अपना रहे हैं, हमारे अपने देश के युवा उनसे दूर होते जा रहे हैं। इस समस्या का एक मात्र समाधान यही है कि हम अपने बच्चों को बचपन से ही सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा बनाएं, उन्हें अपनी संस्कृति की सराहना करना सिखाएं। इससे उनमें आत्मविश्वास बढ़ेगा। वे भारतीय मूल्यों के साथ वैश्वीकरण की दुनिया में पैर जमाएगा और सन्मार्ग का पथिक बनेंगे। ऐसे युवा ही विश्व में भारत का नाम ऊंचा रखेंगे, दुनिया के प्रभाव में न आकर दुनिया पर अपना प्रभाव जमाएंगे…।

Maurya News18 Ranchi.

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