Home खबर गुरु : आत्मा का शिल्पकार…डॉ. शैलेश कुमार मिश्र

गुरु : आत्मा का शिल्पकार…डॉ. शैलेश कुमार मिश्र

  • गुरु हर काल में अपनी दिव्यता से अपनी गुरुता से समाज में अपनी गरिमामयी उपस्थिति दर्ज करता रहा है
  • गुरु की गुरुता का अनुमान करके ही हमारे तत्त्वदर्शी ऋषियों ने गुरु को आचार्य का संबोधन देकर एक गुरुतर उत्तरदायित्व सौंपा था

रांची : अंधेरे घरों के चिरागों को इल्म की रोशनी से रौशन करने वाली शख्सियत, तमसो मा ज्योतिर्गमय के मंत्र को साक्षात्कृत करने वाला व्यक्तित्व, भारतवर्ष के घर घर में वंदनीय, अभिनन्दनीय गुरु के नाम से विख्यात है। गुरु की महत्ता का, उसकी गरिमा का खयाल भारत जैस पौर्वात्य भूमि की परंपरा है, पाश्चात्य देशों की नहीं…। गुरु पूर्णिमा के प्राचीन स्वरूप में या शिक्षक दिवस के आधुनिक स्वरूप में गुरु के प्रति श्रद्धा सार्वकालिक रही है। गुरु पूर्णिमा जैसे अवसर इसके प्राचीन दस्तावेज है। गुरु हर काल में अपनी दिव्यता से अपनी गुरुता से समाज में अपनी गरिमामयी उपस्थिति दर्ज करता रहा है। गुरु की गुरुता का अनुमान करके ही हमारे तत्त्वदर्शी ऋषियों ने गुरु को आचार्य का संबोधन देकर एक गुरुतर उत्तरदायित्व सौंपा था। निरुक्तकार महर्षि यास्क कहते हैं कि जो शिष्य की आत्मा में सम्यक आचरण की स्थापना करे वही आचार्य है। सुंदर आचरण ही शिक्षा की सम्पूर्णता का द्योतक है। आज ऐसे सद् आचार की बड़ी आवश्यकता है। यह माना जाता है कि जब तक शुद्ध आचरण पूर्वक ज्ञानार्जन न हो, चरित्र प्रोज्ज्वल न हो तब तक वह शिक्षा अधूरी है। शायद आचरण के इसी भेद के कारण अर्जुन और दुर्योधन जैसे शिष्यों में भिन्नता आती है। शिष्य कौन है? शिष्यत्व का अर्थ है विनम्रता, समर्पण। अहंकार को गुरु के चरणों में विसर्जित कर विनम्रतापूर्वक जो जीवन का तत्त्व ग्रहण करने की चेष्टा करता है वही शिष्य है।

ज्ञान आत्मा का धर्म है। आत्मा अमूर्त है और ज्ञान भी अमूर्त है। इस अमूर्त में अमूर्त की प्रतिष्ठा का गुरुतर कार्यभार गुरु के कन्धे पर है। न्यायदर्शन में आत्मा को ही ज्ञान का आधार बताया गया है। ज्ञानाधिकरणमात्मा गुरु हमारी आत्मा में जीवन ऊर्जा की ज्योति प्रकाशित करता है। गुरु इसी आत्मा का शिल्पकार है। वह एक तत्त्वदर्शी सष्टा है। वह शिष्य को आत्म साक्षात्कार कराता है। ज्ञान का आदान प्रदान एक मस्तिष्क से दूसरे मस्तिष्क तक केवल तथ्यों का आदान प्रदान मात्र नहीं है। गुरु केवल दिमागी ज्ञान का पिटारा नहीं। गुरु के ज्ञानदान में मस्तिष्क के साथ साथ हृदय भी सक्रिय होता है। ज्ञानदान या ज्ञानग्रहण, ज्ञान के एक आधार से दूसरे आधार तक, एक आत्मा से दूसरी आत्मा तक तत्त्वों को प्रवाह है। आत्मा का साक्षात्कार है। इस साक्षात्कार की पहली शर्त है समर्पण… भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं श्रद्धावॉल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। संयमित इन्द्रियों वाले, श्रद्धा से परिपूरित व्यक्ति को ही ज्ञान प्राप्त हो सकता है। गुरु के प्रति श्रद्धा और समर्पण की बात इसीलिए कही गई है। श्रद्धावान् औ संयतेन्द्रिय व्यक्ति का हृदय स्वच्छ और निर्मल होता है। उस पर अहंकार द्वेष, ईर्ष्या की मलिन छाया नहीं होती। यह प्रमाणित सत्य है कि कोई रंग गहराई से उसी वस्त्र पर चढ़ता है, जो वस्त्र नितांत स्वच्छ, निर्मल और धवल हो। ज्ञान का रंग, दिव्य संस्कारों के रंग भी उसी हृदय पर गहराई से चढ़ते है जिसकी आत्मा स्वच्छ, हो। निर्मल हो, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष घृणा आदि की मलिनता से मुक्त हो। निश्चय ही जब हृदय से हृदय की संवेदना के तार जुड़ते हैं तभी वाणी की वीणा झंकृत होती है तभी ज्ञान का संगीत मुखरित होता है। जब शिष्य अपना सम्पूर्ण समर्पण कर देता है। गुरु के चरणों में अपनी सम्पूर्णता अर्पित कर देता है तब गुरु भी अपनी सम्पूर्णता शिष्य में उखेल देते हैं। आयुर्वेद के प्रख्यात आचार्य जीवक गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। शिक्षा पूर्ण होने पर गुरु ने जीवक और अन्य सभी शिष्यों से गुरु दक्षिणा मांगी। उन्होंने कहा वन में जाकर कोई भी एक ऐसी बूटी, ऐसी ओषधि ढूंढकर लाओ जिसके गुण धर्म, जिसके प्रयोग से तुम अपरिचित हो। कुछ समय के बाद सभी शिष्य कोई न कोई औषधि ढूंढ लाए और गुरुदक्षिणा गुरु के चरणों में समर्पित कर दी। जीवक नहीं लौटा। उसके सहपाठी चिन्तित हुए। इधर जीवक को कोई ऐसी ओषधि मिल ही नहीं रही थी। वह गुरुदक्षिणा कैसे दे? काफी दिनों के बाद यह लौटा औ वह भी खाली हाथ। रोता हुआ गुरु के चरणों पर गिर पड़ा और बोला मैं गुरुदक्षिणा नहीं दे पाऊंगा…। मैंने बहुत मेहनत की पर ऐसी कोई बूटी ढूंढ नहीं पाया। गुरु ने उसे हृदय से लगा दिया और कहा तूने गुरुदक्षिणा दे दी। मेरे इन सभी शिष्यों में केवल तेरी ही शिक्षा पूर्ण हुई। गुरु के परीक्षा लेने का यह ढंग अ‌द्भुत था।

शास्त्रकारों ने दो प्रकार के वंश बतलाए हैं एक दैहिक जन्म का वंश और दूसरा विद्या का। विद्यार्जन दूसरा जन्म है और दूसरा जन्मदाता गुरु है। दैहिक जन्म देने वाले माता पिता शरीर के जन्मदाता हैं किन्तु उसमें एक दिव्य आत्मा को सँवारने वाला दूसरा जन्मदाता गुरु है। गुरु एक अनगढ़ पत्थर को एक कलात्मक मूर्ति के रूप में डालता है। गुरु जैसा शिल्पकार उस पत्थर पर संस्कारों की लकीरें उकेर उकेर कर ज्ञान का सौन्दर्य उसमें भरता जाता है जिससे वह अनगढ़ पत्थर एक बेश कीमत कलाकृति बन जाता है। यही संस्कारों का सौन्दर्य, ज्ञान का गौरव उस शिष्य के जीवन का मार्ग प्रशस्त करता है। प्राचीनकालीन गुरुकुल में शिष्य के जीवन का वह महत्त्वपूर्ण कालखंड अहर्निश गुरु की छत्रछाया में बीतता था। गुरु शिष्यों के मानसिक, शारीरिक और चारित्रिक उत्थान के लिए सतत प्रयत्नशील रहता था। और तब उन गुरुकुलों में आरुणि और अर्जुन पैदा होते थे। उसी गुरुकुल में राजा और रंक बराबर दिखाई देते थे। कृष्ण और सुदामा की मित्रता की मिसाल वहीं पैदा होती थी।

ऐसी दिव्य आत्माओं को गढ़ने वाले शिल्पकार की आत्मा की दिव्यता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। द्रोण और धौम्य बनने के लिए, सांदीपनि बनने के लिए अर्जुन और आरुणि, कृष्ण और सुदामा जैसी मूर्तियों गढ़नी पड़ती है। त्याग तपस्या और समर्पण की आवश्यकता होती है गुरु निःस्पृह होकर ज्ञानदान की तपस्या करते थे। उन्हें न धन की चाह थी न सुख समृद्धि की परवाह। उन्हें अगर परवाह थी तो सिर्फ श्रद्धा की, सम्मान की। उनकी निःस्पृहता और त्याग की ताकत ऐसी थी कि बड़े बड़े कुबेर धर्मी राजाओं के सिर उन गुरुओं के चरणों में झुकते थे। निश्चय ही गुरु और शिष्य के पारस्परिक समर्पण की साधना से ही ज्ञान की ज्योति जगमगाती है। कबीर के शब्दों में-यह तन विष की बेलरी गुरु अमृत की खान। शीश दिये जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान…
शिक्षक दिवस की शुभकामनाएं।
Maurya News18 Ranchi.

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